जनपथ न्यूज डेस्क
Reported by: गौतम सुमन गर्जना
Edited by: राकेश कुमार
23 मार्च 2023

भागलपुर : अंग प्रदेश के आसपास का रंगमंच बिहार की समृद्ध संस्कृति का ही परिचायक है। आज भी आसपास के प्रायः सभी गांवों और कस्बों में किसी सामुदायिक जगह अथवा मंदिर परिसर में बने रंगमंच को देखा जा सकता है।

उक्त बातें राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त अंग प्रदेश के चर्चित रंगकर्मी डॉ. चैतन्य प्रकाश ने कही। उन्होंने कहा कि गांव में प्रायः नाटकों की प्रस्तुति विशेष त्योहारों के अवसर पर ही की जाती थी लेकिन भागलपुर से सटे राघोपुर, मुरहन, सुल्तानगंज, बरियारपुर और घोरघट जैसी जगहों पर नाटकों के निमित्त ही विशेष आयोजन किये जाते रहे हैं।

डाॅ.चैतन्य प्रकाश ने बताया कि मास्टर राणा,बासुकी पासवान, संजय और अभय जैसे कलाकारों ने नाटकों के लिए अपना जीवन ही समर्पित कर दिया है। इनमें मास्टर राणा एक दौर में पूरे अंग प्रदेश के विशिष्ट रंगकर्मी के रूप में पहचाने जाते रहे थे। रंगमंच के प्रति मास्टर राणा की दीवानगी का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अपनी मृत्यु से मात्र एक वर्ष पहले 85 वर्ष की अवस्था में भी भागलपुर शहर के कला केंद्र में आयोजित रंग ग्राम के नाट्य महोत्सव में वे अभिनय व नृत्य करते नजर आए थे।

डाॅ.चैतन्य ने कहा कि गांव में होने वाले नाटकों को सामाजिक नाटक कहा जाता था। मतवाला एक ऐसे लेखक थे, जिनके नाटकों का प्रायः सभी गांव में मंचन हुआ था। वरिष्ठ कथाकार पीएन जायसवाल को स्मरण करते हुए उन्होंने कहा कि उनका नाटक चंबल घाटी का लुटेरा तो मानो एक लोकोक्ति सा ही बन गया था। साथ ही ऐतिहासिक पौराणिक नाटकों में चतुर्भुज की ख्याति चरम पर थी। उन्होंने बताया कि समाजिक नाटकों में बीपी राजेश ने अनेकों नाटकों की रचना की, जिसकी अनगिनत प्रस्तुतियां प्रायः सभी गांवों में हुई । उनके नाटकों में एक मुट्ठी चावल, किसकी चादर में दाग नहीं, गोली दाग दो, मेरा गांव मेरा देश आदि खूब चर्चित हुए। तब प्रकाशकों में उर्मिला प्रकाशक का मतलब ही हो गया था, जो सिर्फ सामाजिक नाटकों के प्रकाशन करता है। डाॅ.चैतन्य ने बताया कि गांव में हो रहे हैं सामाजिक नाटकों पर पारसी रंगमंच के साथ ही सिनेमा का भी खूब प्रभाव था। कालीचरण उर्फ कालिया, सुदामा डांसर, बिशेसर डांसर, धनंजय और हीरबा जैसे कलाकारों के नाच के बगैर कोई भी नाटक पूर्ण नहीं हो सकता था। इन डांसरों की हर इलाके में तूती बोलती थी। कलिया डांसर ने तो मानो सफलता का कीर्तिमान ही रच दिया था।

*उखड़ी चढ़ी मरी गेलियै केन्हो कमाल करी देलियै*

डाॅ. चैतन्य ने भूली बिसरी यादों को ताजा करते हुए एक अंगीका गीत के मुखौटे “उखड़ी चढ़ी मरी गेलियै केन्हो कमाल करी देलियै”को गुनगुनाया और कहा कि इन जैसे कई गीतों से सुदामा डांसर ने धूम मचा रखी थी। उन्होंने बताया कि इस सुदामा ने तो शास्त्रीय नृत्य की भी बाखूबी प्रस्तुती दी थी। भागलपुर के आस-पास में हो रहे ग्रामीण रंगमंच की एक और खास बात थी विदूषकों की परंपरा। कई ख्याति लब्ध विदूषक भी नाटकों के बीच में दर्शकों के मनोरंजन के लिए बुलाए जाते थे। ग्रामीण रंगमंच में विदूषकों की उपस्थिति की परंपरा निसंदेह भरतमुनि के संस्कृत रंगमंच से आयातित हैं, जो आदि काल से चली आ रही है।

*छप्पन छुरी बहत्तर पेट तपन दादू से होगा भेंट*

डाॅ.चैतन्य ने “छप्पन छुरी बहत्तर पेट तपन दादू से होगा भेंट” की बात करते हुए कहा कि तपन दादू ऐसे ही मशहूर विदूषक थे, जिनकी कॉमेडी और चुटकुलों से दर्शक हंसते-हंसते लोटपोट हो जाया करते थे। तब ग्रामीण रंगमंच में प्रदर्शन की शुरुआत किसी देव स्तुति या वंदना से होती थी और पर्दा खुलने के साथ ही पहला दृश्य दर्शकों की आंखों को चकाचौंध कर देता था। पहले दृश्य को सजाने हेतु कलाकार घंटों परिश्रम करते थे और इसी समय जरूरत होती थी छेदीलाल जैसे कलाकार की, जिन्हें चंवरखानी की उपाधि भी दी गई थी। आज भी छेदीलाल चंवरखानी अपने कार्य के लिए उतने ही प्रतिबद्ध हैं, जितना कि वर्षों पूर्व हुआ करते थे। लंबे सफेद बाल धोती और कुर्ता पहने चंवरखानी किसी पुरानी फिल्म के मुनीम की तरह दिखते हैं। नाटकों की प्रस्तुति में रूप सज्जा से लेकर दृश्य बंध के निर्माण तक की पूरी जिम्मेदारी छेदीलाल के ही ऊपर होती थी। छेदीलाल ने स्वयं उपकरणों को अपने लिए संजोया था। बस छेदीलाल को यह पता होना चाहिए कि कौन सा नाटक मंचित होना है और छेदीलाल उक्त नाटक से संबंधित तमाम उपकरणों के साथ हाज़िर हो जाते थे।

डाॅ. चैतन्य ने दंभ भरते हुए बताया कि आज भी भागलपुर के आसपास के क्षेत्रों में नाट्य संबंधी कई महोत्सव का लगातार आयोजन किया जा रहा है, जिसमें बरियारपुर में होने वाले अंग नाट्य यज्ञ, घोरघट में होने वाले लाठी महोत्सव,भागलपुर में होने वाले रंग ग्राम नाट्य महोत्सव के साथ ही विभिन्न स्थानों पर होने वाले कई नाट्य उत्सवों के नाम हैं। उन्होंने बताया कि हाल के दिनों में पाश्चात्य संस्कृति ने भागलपुर के आसपास की ग्रामीण परंपरा को भी प्रभावित किया है। वर्तमान में नाटकों की प्रस्तुतियां अपेक्षाकृत कम हो गई हैं और ऑर्केस्ट्रा ने विभिन्न त्योहारों के अवसर पर होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में घुसपैठ की है। लेकिन अभी कई ऐसे समर्पित ग्रामीण कलाकार हैं, जो आज भी ग्रामीण रंगमंचीय संस्कृति के जड़ों को थामे हुए हैं, जिनकी वजह से भागलपुर के आसपास के क्षेत्र में आज भी ग्रामीण रंगमंच जिंदा है।

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