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श्रावणी मेला पर विशेष : ब्रह्मा के वरदान से शिवलिंग पर अर्पित होता है गंगा-जल

*शिव आराधना का महापर्व है श्रावणी मेला*

जनपथ न्यूज़ डेस्क
गौतम सुमन गर्जना/भागलपुर
9 जुलाई 2023

प्रत्येक साल सावन माह के प्रारंभ होते ही बिहार और झारखंड का पूरा क्षेत्र केसरिया वस्त्रधारी शिवभक्तों की चहल-पहल व ‘बोल बम’ के नारों से गूंजायमान हो उठता है। श्रावणी मेला का प्रारंभ-स्थल बिहार स्थित अंग प्रदेश के हृदय स्थल भागलपुर जिला अंतर्गत सुल्तानगंज है,जिसकी प्रसिद्धि ‘अजगैबीनाथ धाम’ से भी है, जहां अजगैबीनाथ महादेव विराजते हैं।

श्रावण मास के दौरान बिहार और झारखंड राज्यों के साथ देश के विभिन्न भागों के अलावा नेपाल, भूटान, बांग्लादेश से भी प्रतिदिन हजारों-लाखों की संख्या में शिवभक्त सुल्तानगंज के अजगैबीनाथ धाम आते हैं और यहां से उत्तरवाहिनी गंगा का पवित्र जल अपने कांवरों में लेकर करीब 110 किमी नंगे पांव नियम-निष्ठापूर्ण साधनायुक्त यात्रा कर इसे झारखंड स्थित अंग प्रदेश के देवघर अंतर्गत वैद्यनाथ द्वादश ज्योतिर्लिंग पर अर्पित करते हैं तथा अपने मनोवांछित फल प्राप्त करने की कामना करते हैं।

सावन मास के दौरान सुल्तानगंज से लेकर देवघर तक के 110 किमी के विस्तार में दिन-रात केसरिया वस्त्रधारी शिवभक्तों का काफिला लगातार चलायमान रहता है,जिसे लोक आस्था का महामेला अर्थात शिव भक्तों का महाकुंभ कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वस्तुत: प्रत्येक वर्ष सावन के महीने में लगनेवाला श्रावणी मेला वैद्यनाथ द्वादश ज्योतिर्लिंग पर जल-अर्पण का महा-अनुष्ठान है।

सर्वाविदित है कि भगवान भोलेनाथ को जल अत्यंत प्रिय है और यदि यह जल उत्तरवाहिनी गंगा का हो तो अति उत्तम! तभी तो सावन के महीने में उमड़ पड़ता है शिवभक्तों का सैलाब सुल्तानगंज की उत्तरवाहिनी गंगा से बाबा की नगरी देवघर की ओर! किंतु यदा-कदा एक जिज्ञासा किसी-किसी भक्त के मन में सहज उत्पन्न हो जाती है कि जब त्रिपथ-गामिनी गंगा का निवास ही भगवान शिव के जटाजूट में है, तो इसे पुनः उनके मस्तक पर अर्पित करने का क्या प्रयोजन? क्यों चल पड़ी ऐसी परम्परा? तो इस संबंध में एक बड़ी ही रोचक कथा है और वह कथा यह है कि…
राजा भगीरथ की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर पतित-पावनी गंगा सागर के साठ हजार पुत्रों के उद्धार हेतु जब धरती की ओर चली, तो भगवान शंकर ने गंगा के उग्र वेग से पृथ्वी की रक्षा के दृष्टिगत उन्हें अपनी जटाओं में समेट लिया। तत्पश्चात भगवान शिव ने गंगा की चंचलता को कम करके पृथ्वी के कल्याण और सागर पुत्रों के उद्धार हेतु उसे धरती पर उतारा। किंतु गंगा को लगा कि शिव की जटा में बंधे होने के कारण उनकी स्वछंदता में कमी आ गई है। इसपर जब भगवान ब्रह्मा ने यह कहा कि हे गंगे! तुम तो अत्यंत सौभाग्यशाली हो कि भगवान शिव ने तुम्हें अपने शीश पर धारण किया है, तो इसपर गंगा बोल उठी कि आपका कथन तो ठीक है, किंतु पृथ्वी लोक में विचरण करने से स्वर्गलोक निवासिनी गंगा का अपमान ही होगा; क्योंकि मेरे अंदर अच्छे और बुरे सब प्रकार के लोग स्नान करेंगे। बुरे लोगों के स्नान करने से मेरा जल अपवित्र हो जायेगा, जिससे मुझे बड़ी ग्लानि होगी। गंगा की इस गुहार को सुनकर भगवान ब्रह्मा ने कहा -‘गंगे तुम इसकी चिंता मत करो। मैं तुम्हें वरदान देता हूं कि तुम्हारे जल से स्नान करनेवाले लोग चाहे वे अच्छे हों या बुरे, उनमें से अधिकांश लोग तुम्हें भगवान शिव के मस्तक अर्थात शिवलिंग पर चढ़ायेंगे।’ कहते हैं,भगवान ब्रह्मा के इस वरदान के कारण शिवभक्त के द्वारा गंगाजल को वैद्यनाथ द्वादश ज्योतिर्लिंग एवं अन्य शिवलिंगों पर अर्पित करने की परम्परा शुरू हो गई।

श्रावण मास में शिवलिंग पर जल अर्पित करने की परम्परा के पीछे एक अन्य मान्यता यह भी है कि पौराणिक काल में देवताओं और दानवों ने श्रावण मास में ही समुद्र मंथन किया था, जिससे निकले विष का पान कर भगवान शिव ‘नीलकंठ’ कहलाये। भगवान शंकर ने विष का पान कर विश्व को तो हलाहल की ज्वाला से बचा लिया, किंतु उसकी जलन से स्वयं अत्यंत विचलित हो उठे थे। ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव के कंठ की इस ज्वाला के शमन हेतु समस्त देवताओं ने बाबा भोलेनाथ पर जल अर्पित किये थे। चूंकि भगवान शिव ने श्रावण मास में विषपान किया था और श्रावण मास में ही देवताओं ने उनपर गंगाजल चढ़ाये थे, इसलिए शिवभक्त श्रावण मास में बाबा वैद्यनाथ पर जल अर्पित करने हेतु पूरी भक्ति और श्रद्धा के साथ निकल पड़ते हैं। यह एक सुखद संयोग है कि जिस मंदार पर्वत को मथनी बनाकर समुद्र मंथन किये जाने की मान्यता है, वो वैद्यनाथ धाम देवघर से कुछ ही दूरी पर अंग प्रदेश के हृदय स्थल भागलपुर प्रमंडल के बांका जिला के बौंसी में अवस्थित है।

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