जनपथ न्यूज डेस्क

Written by: A.P. Pathak

5 January 2023

जैसे ही हम 2024 में प्रवेश कर रहे हैं , भारत सांस्कृतिक पुनर्जागरण के शिखर पर है। अयोध्या में नवनिर्मित राम जन्मभूमि मंदिर में राम मूर्ति की प्रतिष्ठा को महज एक धार्मिक आयोजन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। सच है, हिंदू राम की पूजा करते हैं, लेकिन जिस तरह रामायण और महाभारत भारत के राष्ट्रीय महाकाव्य हैं उसी तरह राम हमारे राष्ट्रीय नायक हैं। देश के किसी भी हिस्से में जाएँ और आपको लोगों के नाम में राम मिलेगा – दक्षिण में रामचन्द्रन, रामनाथन, रामय्या या रामप्पा से लेकर उत्तर में रामभाई, रामसिंह या रामशरण तक।

यद्यपि रामायण की ऐतिहासिकता के बारे में बहस जारी रहेगी, यह एक तथ्य है कि विशेष रूप से राम और सामान्य रूप से रामायण अनिवार्य रूप से हिंदू/भारतीय विश्वास को प्रतिबिंबित करते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर देवत्व के कुछ तत्व हैं – यह एक मूलभूत सिद्धांत है कि हिंदू अक्सर भूल जाते हैं और इसलिए विखंडन के खतरे का सामना करते हैं। राम भारतीय मूल्य प्रणाली के मूल का प्रतीक हैं जो मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित है। इसी सांस्कृतिक पुनर्जागरण से प्रभावित होकर लेखक एपी पाठक ने भी अपने बाबु धाम ट्रस्ट के माध्यम से वाल्मिकीनगर संसदीय क्षेत्र में युवाओं के बीच सांस्कृतिक सजगता कार्यक्रम चलाया था।

22 जनवरी को होने वाले प्रतिष्ठा समारोह में वाल्मिकी और रवि दास मंदिर के पुजारियों की उपस्थिति की मांग और महर्षि वाल्मिकी के नाम पर अयोध्या धाम हवाई अड्डे का नामकरण, सामाजिक एकता, न्याय और सद्भाव का एक जोरदार और स्पष्ट संदेश गया है – यह है बाबा साहब अम्बेडकर ने जो कल्पना की थी।

फारूक अब्दुल्ला को यह कहते हुए सुनना सुखद है , “राम केवल हिंदुओं के नहीं हैं। वह सभी का है”। यह सचमुच एक महान परिवर्तन है। अगर बाबर को भी इसका एहसास होता तो कितना अच्छा होता. राम मंदिर को नष्ट करके, उन्होंने एकम् सत् विप्रा बहुदा वदन्ति (भगवान एक है लेकिन बुद्धिमान लोग अलग-अलग तरीकों से उनका वर्णन करते हैं) की भूमि भारत की आत्मा को पंगु बना दिया। राम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण शुरू होने के बहाने, हमें अपने मंदिरों की स्थापत्य शैली के बारे में बात करने का मौका भी मिल जाता है। ऐसा नहीं है कि इनके बारे में पढ़ा नहीं जाता या बताया नहीं जाता। हाँ ये जरूर है कि आम आदमी की पहुँच से इस जानकारी को दूर रखा गया है।

इतना समय मिलेगा तो जाहिर कि ये काफी विकसित शास्त्र के रूप में बनकर तैयार हो गया होगा। शुरुआती दौर में मंदिर के लिए देवगृह, देवस्थान, देवालय जैसे शब्द प्रयुक्त होते थे। मंदिर निर्माण की जो तीन विशिष्ट शैलियाँ हैं- नागर, द्रविड़ और बेसर, उनका विकास अलग अलग क्षेत्रों में हुआ। उत्तरी से लेकर मध्य भारत तक के नगरों में जिस प्रकार के मंदिर बनते थे, उन्हें नगर शब्द के आधार पर ही नागर शैली का नाम दिया गया। द्रविड़ शैली नर्मदा के निचले हिस्से से दक्षिणी भारत तक अधिक प्रसिद्ध है और बेसर इन दोनों शैलियों का मिला जुला रूप है।

 

सोशल मीडिया के दौर और इंटरनेट से फैलती सूचनाओं के दौर ने इसे थोड़ा बदला है, वरना मंदिर निर्माण की किताबें भी बहुत महंगी होती हैं और अधिकतर आम लोगों की पहुँच से बाहर ही होंगी। 90 के दशक में जब राम-जन्मभूमि मंदिर का निर्माण फिर से करवाने का आंदोलन जोर पर था, करीब-करीब तभी से एक मंदिर का प्रारूप सा सबने देख रखा है। ये तीन शिखरों वाला मंदिर था और जैसा ये दिखता था, करीब-करीब वही “नागर” शैली है।

मंदिर निर्माण में मुख्यत: पत्थर का प्रयोग होता रहा है, किंतु ईंटों के भी प्रचुर प्रयोग मिल जाते हैं। मौर्य काल में काष्ठ मंदिरों के भी साक्ष्य हैं। पहाड़ी क्षेत्र में लकड़ी के मंडपों का प्रयोग अधिक देखने को मिलता है।
ताजमहल का ऊपरी भाग देख लें, तो वहाँ भी कलश की संरचना नजर आ जाएगी।
मूल मंदिर के शिखर के बाद थोड़ी सी जगह छोड़कर मंडप भी बनते हैं। ये भी क्रमश: घटती ऊँचाई व विस्तार के साथ महामंडप, मंडप, अर्धमंडप कहलाते हैं। द्वार व स्तंभ भी स्वरूप के हिसाब से अलग-अलग नाम वाले होते हैं, जैसे तोरण द्वार। इस आधार पर जन्मभूमि मंदिर को नागर कहें या द्रविड़, या बेसर, ये सोचना पड़ेगा। नागर शैली में गर्भगृह के सामने मंडप होता है, द्रविड़ में मंडप का वहीं होना आवश्यक नहीं और मंडप पर शिखर भी नहीं होता। इस आधार पर जन्मस्थान मंदिर नागर होगा। द्वार के लिए नागर शैली के मंदिरों में तोरण द्वार होते हैं और द्रविड़ में गोपुरम होता है। द्रविड़ शैली में मंदिर परिसर में ही जलाशय (जिसे कल्याणी या पुष्करणी कहते हैं) आवश्यक होता है, नागर शैली में ये आवश्यक नहीं है।

जैसी बहसें हाल में मंदिर निर्माण के शुरू होने के मुहूर्त को लेकर छिड़ी हुई दिखी, वैसी बहसें कभी स्थापत्य या वास्तु पर नहीं दिखीं। संभवतः इसका एक कारण ये होगा कि शिक्षा नीति बनाने वालों ने 70 साल तक स्थापत्य से जुड़ी भारतीय जानकारी को छुपाकर रखा होगा।
शायद गैर भाजपा सरकारों ने इसके बाहर आने पर वैज्ञानिक गणना जैसी चीज़ों में भारतीय कितने सक्षम थे, इस पर भी बात करनी पड़ती, जो कि उनके बनाए नैरेटिव पर फिट नहीं आती थी।

जाहिर है लोग आपसी सूझ-बूझ से इतने बड़े निर्माण आराम से कर सकते थे। इनके बारे में चर्चा, शिक्षा के सबके लिए नहीं होने, सिर्फ ब्राह्मणों तक सीमित होने, के दावे की भी पोल खोल देता। भारत का सबसे पहला इंजीनियरिंग कॉलेज भी नहर की देखभाल और मरम्मत करने वालों के लिए बनाए जाने के नाम पर ही बनवाया गया था। कहने का मतलब ये है कि आँखें खोलकर आपको देखना होगा। अपने आस पास देखना और सवाल पूछना भी हमें ही शुरू करना होगा। जन्मभूमि मंदिर का निर्माण केवल एक धार्मिक घटना ही नहीं है। ये संस्कृति का पुनः जागरण है।

लेखक… एपी पाठक
पुर्व नौकरशाह भारत सरकार, वर्तमान बीजेपी नेता, बिहार

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