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जब-जब लालू परिवार पर कसा शिकंजा, तब-तब राजद को हुआ फायदा… ?

अब तक का इतिहास बता रहा है जनपथ न्यूज www.janpathnews.com

जनपथ न्यूज डेस्क
Reported by: गौतम सुमन गर्जना
Edited by: राकेश कुमार
12 मार्च 2023

भागलपुर : लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी और उनके परिवार के सदस्यों का पिछले ढाई दशक से सीबीआई, ईडी और आईटी जैसी सेंट्रल एजेंसियों से करीब का रिश्ता रहा है। इन एजेंसियों की जब-जब सक्रियता बढ़ती है तो लगता है कि लालू यादव का परिवार अब मटियामेट हो जाएगा। उसकी राजनीतिक हैसियत नेस्तनाबूद हो जाएगी। थोड़ा-बहुत इसका असर दिखा भी है, लेकिन यह भी सच है कि हर संकट के साथ लालू यादव का परिवार पहले से कहीं अधिक मजबूत हुआ है। आज तो हालत यह है कि लालू के परिवार में तेज प्रताप यादव को छोड़ तकरीबन सभी केंद्रीय एजेंसियों के जांच के दायरे में हैं। इसके बावजूद बिहार की राजनीति की धुरी भी लालू यादव का परिवार ही बना हुआ है।

*जेल में रह कर भी ताकतवर बने रहे लालू प्रसाद यादव*: लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले में जब जेल गये, तब भी उनकी ताकत का एहसास हुआ था। तब लालू की पत्नी राबड़ी देली कुशल गृहिणी की भूमिका में घर संभाल रही थी। बेटे-बेटियां भी उस लायक नहीं थे कि वे पिता की विरासत संभाल सकें। विरोधियों का अनुमान था कि आरजेडी अब बिखर जाएगा। लालू की गैरहाजिरी में पार्टी को एकजुट रखना मुश्किल होगा। लेकिन इसे लालू का करिश्मा ही कहें कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। जगदानंद सिंह, अब्दुल बारी सिद्दीकी जैसे कद्दावर नेता भी जेल गये लालू के इशारे पर चलते रहे और बिना ना नुकुर किये लालू की सलाह पर राबड़ी देवी को सीएम के रूप में सबने स्वीकारा। इस तरह आरजेडी अटूट रही और अगले 10 साल तक राबड़ी देवी ने मुख्यमंत्री के रूप में बिहार की कमान संभाली।

*सजा से भी नहीं बिखरा आरजेडी, और मजबूत हुआ*: लालू प्रसाद यादव को जब चारा घोटाले के मामलों में सजा हुई तो फिर यह लगने लगा कि आरजेडी का अब उभार संभव नहीं होगा। पर, यहां भी अनुमान गलत हुआ। अपनी कुशल रणनीति से लालू ने अपने धुर विरोधी और कभी साथ रहे नीतीश कुमार को पटा लिया। 2015 के चुनाव में नीतीश की पार्टी जेडीयू और लालू की पार्टी आरजेडी ने साथ चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया। संयोग से कांग्रेस का भी साथ मिला। उन दिनों लालू जमानत पर जेल से बाहर थे। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा संबंधी बयान को लालू ने अपने पक्ष में मोड़ लिया। उन्होंने इसे इस रूप में प्रचारित किया कि आरएसएस और बीजेपी के लोग आरक्षण समाप्त करना चाहते हैं। यहां बताना प्रसांगिक है कि लालू का उभार ही मंडल कमीशन की आरक्षण संबंधी सिफारिशों को बिहार में लागू करने के साथ हुआ था। बाजी पलट गयी और तीन दलों के महागठबंधन ने बिहार में सरकार बना ली।

*जब एनडीए को महागठबंधन ने दिखा दी थी औकात*: 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में लालू के कारण ही बीजेपी की लीडरशिप वाले एनडीए को मात खानी पड़ी थी। तब बिहार एनडीए में रामविलास पासवान की लोजपा और उपेंद्र कुशवाहा की तत्कालीन आरएलएसपी थीं। पासवान की पार्टी को विधानसभा चुनाव में सिर्फ 2 सीटें आयीं। बीजेपी के खाते में 53 सीटें ही गयी थीं। आरजेडी के नेतृत्व वाले महागठबंधन में जेडीयू और कांग्रेस शामिल थे। आरजेडी और जेडीयू ने बराबर सीटों पर चुनाव लड़ा और 80 सीटों पर जीत के साथ आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरा। दूसरे नंबर पर जेडीयू रहा, जिसे 71 सीटें आयीं। कांग्रेस को 27 सीटें मिली थीं।

*बीजेपी का वोट शेयर सर्वाधिक, पर सीटें कम मिलीं*: 2015 के विधानसभा चुनाव की एक खास बात यह रही कि बीजेपी को भले 53 सीटें मिली थीं, लेकिन उसका वोट शेयर सर्वाधिक 24.42% रहा। सबसे अधिक 80 सीटें जीतने वाले आरजेडी आरजेडी वोट शेयर महज 18.35% और 71 सीटों वाली दूसरे नंबर की पार्टी जेडीयू को सिर्फ 16.83% ही वोट मिले थे। कांग्रेस ने भले 27 सीटें आयी थीं, लेकिन उसे महज 6.66% ही वोट मिले थे। दो सीटों वाली लोक जनशक्ति पार्टी ने 4.83 प्रतिशत वोट हासिल किये थे।

*आखिर लालू प्रसाद यादव की हस्ती मिटती क्यों नहीं है*: लालू प्रसाद यादव पिछड़े समाज से हैं। जब तक जाति आधारित जनगणना नहीं हो जाती, तब तक तो पक्के तौर पर किसी जाति की आबादी का अनुमान लगाना असंभव है, लेकिन माना जाता है कि बिहार में अति पिछड़ा और पिछड़ा की आबादी तकरीबन 52% हैं। इसमें अकेले लालू की जाति यादव बिरादरी के 16% से अधिक लोग हैं। आबादी के हिसाब से बिहार की दूसरी बड़ी जाति कुशवाहा (कोइरी-अवधिया) है। कुशवाहा आबादी 8% बतायी जाती हैं। इतनी ही आबादी नीतीश कुमार की अपनी जाति कुर्मी की आंकी जाती है। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि 2015 में यादवों के एकमुश्त वोट आरजेडी को मिले और नीतीश को भी कुर्मी-कुशवाहा के कुल वोट हासिल हुए। इसके अलावा मुसलिम और दलित वर्ग के वोट हैं। लालू से अलग होकर नीतीश कुमार दूसरे प्रयास में जब सीएम बने तो उन्होंने आरजेडी के पारंपरिक वोट बैंक मुस्लिम और दलितों में सेंधमारी कर ली थी। दलितों में दो तबके नीतीश ने बना दिए। पसमांदा समाज को अपने साथ किया तो इसी पैटर्न पर दलितों को दो तबके में बांट कर महादलित समाज को अपने पक्ष में करने में कामयाबी हासिल कर ली थी। इस तरह समेकित रूप से कुल तो नहीं, लेकिन तकरीबन 40 प्रतिशत वोटों पर महागठबंधन ने कब्जा जमा लिया था। लालू की पकड़ अब भी यादवों में बरकरार है। नीतीश कुमार से मुस्लिम समाज इसलिए बिदका कि वे बीजेपी के पाले में चले गये। यही कराण था कि 2020 के विधानसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी से कोई मुस्लिम उम्मीदवार नहीं जीत पाया था।

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