नीतीश+बीजेपी को पटखनी देने का 'लालू प्लान', मीरा-मायावती के बाद मांझी की तरफ बढ़ाया हाथ

आइए पिछले कुछ राजनीतिक घटनाक्रम के जरिए समझने की कोशिश करते हैं कि कैसे एनडीए और महागठबंधन बिहार में नया जातीय राजनीतिक समीकरण गढ़ने की तैयारी में है.

नई दिल्ली: होली से ठीक पहले बिहार में दो बड़े राजनीतिक घटनाक्रम हुए हैं. महागठबंधन और एनडीए (नेशनल डेमोक्रेटिक अलाइंस) खेमा ने एक-दूसरे को झटका दिया है. एनडीए में नाराज चल रहे हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) सेक्युलर के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी एनडीए छोड़ राजद-कांग्रेस के महागठबंधन में शामिल हुए और कांग्रेस के छह एमएलसी में चार ने जदयू का दामन थाम लिया, जिससे बिहार में नाटकीय ढंग से राजनीतिक उथल-पुथल देखने को मिला. इन दो बड़े राजनीतिक घटनाक्रम के बैकग्राउंड पर नजर डालें तो पता चलता है कि इसकी स्क्रिप्ट लंबे समय से लिखी जा रही थी और इसके जरिए बिहार की राजनीति की धुरी दलित बनने वाले हैं. आइए पिछले कुछ राजनीतिक घटनाक्रम के जरिए समझने की कोशिश करते हैं कि कैसे एनडीए और महागठबंधन बिहार में नया जातीय राजनीतिक समीकरण गढ़ने की तैयारी में है.

लालू-कांग्रेस ने मिलकर बनाया है प्लान

साल 2005 में नीतीश कुमार की जदयू और बीजेपी गठबंधन प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई. इसके बाद के चुनाव परिणामों से विपक्ष को संकेत मिल चुके थे कि इनके साथ रहते इन्हें हराना काफी मुश्किल है. 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले लालू-नीतीश ने कांग्रेस को साथ लेकर महागठबंधन तैयार किया और प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में पहुंचे. हालांकि नीतीश कुमार ने बीच में ही गठबंधन तोड़ दिया और बीजेपी से हाथ मिलाकर सरकार बनाने में सफल रहे.

नीतीश कुमार के इस फैसले के बाद आरजेडी प्रमुख लालू यादव ये समझ चुके थे कि बिहार बीजेपी+नीतीश कुमार के गठबंधन को हराने के लिए उन्हें नया जातीय राजनीतिक समीकरण तैयार करना होगा. जाति आधारित राजनीति के माहिर खिलाड़ी लालू समझ चुके थे कि बिहार में मुस्लिम+यादव (MY) समीकरण के जरिए उन्हें सत्ता मिलना मुश्किल है. बिहार में 16 फीसदी मुसलमान और करीब 14 फीसदी यादव वोटर हैं. पिछले वोटिंग पैटर्न पर नजर डालें तो ये दोनों हर हाल में लालू यादव पर ही भरोसा करते रहे हैं.

इसी समीकरण को ध्यान में रखकर लालू यादव और कांग्रेस ने मिलकर तय किया कि अगर बिहार में दलितों को साध लिया गया तो शायद आगे चुनावों में जीत की राह खुल सकते हैं. इसी प्लानिंग के तहत लालू यादव की सलाह पर कांग्रेस ने मीरा कुमार को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किया था. पूरे चुनाव प्रचार में मीरा कुमार को दलित की बेटी दर्शाने की कोशिश की गई.

हालांकि एनडीए खेमा ने महागठबंधन के इस दांव को पहले ही भांप लिया और दलित समाज से आने वाले रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति की कुर्सी तक पहुंचाकर लालू के मंसूबे पर पानी फेर दिया.

लालू ने मायावती पर खेला दांव
राष्ट्रपति चुनाव में दलित कार्ड खेलने में पीछे रहने के बाद लालू प्रसाद यादव ने देश में दलितों के सबसे बड़े चेहरे मायावती पर दांव लगाया. लालू ने ऐलान किया कि अगर मायावती राज्यसभा जाना चाहती हैं तो आरजेडी उन्हें अपने कोटे से भेजने को तैयार हैं. मायावती के चेहरे के जरिए लालू खुद को दलित हितैषी साबित करने की तैयारी में थे. बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) प्रमुख मायावती की ओर से प्रस्ताव ठुकराए जाने के बाद एक बार फिर से लालू का दांव फेल साबित हुआ.

लालू ने मांझी पर डाले डोरे
मायावती और मीरा कुमार के चेहरे को भुनाने में नाकाम होने के बाद लालू प्रसाद यादव ने एनडीए में नाराज चल रहे जीतन राम मांझी को अपने पाले में लाने की कोशिश की, जिसमें वे सफल भी रहे. बताया जा रहा है कि जीतन राम मांझी अपने बेटे संतोष कुमार सुमन को राजनीति में लांच करना चाहते हैं, लेकिन बीजेपी उन्हें उचित प्लेटफॉर्म नहीं दे पा रही थी. लालू ने इसी मौके को भांपते हुए झारखंड के जेल में बैठकर मांझी को प्रस्ताव भेजा. मांझी ने अपने सबसे करीबी वृषिण पटेल और बेटे संतोष को लालू से मिलने जेल में भेजा. यहां तय हुआ कि आरजेडी मांझी के बेटे को राजनीतिक लांचिंग प्लेटफॉर्म मुहैया कराएंगे. खबर है कि आरजेडी मांझी के बेटे को विधान परिषद में भेज सकती है.

जीतन राम मांझी बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. मौजूदा वक्त में बिहार की राजनीति में वे दलितों के सबसे चर्चित चेहरे हैं. बिहार में दलितों का कुल वोट बैंक करीब 13 फीसदी है, जिसमें से 10 फीसदी महादलित हैं. जीतन राम मांझी महादलित समाज से ही आते हैं. दलित वोट बैंक पर महागठबंधन और एनडीए दोनों की नजर है. लालू खेमा ने मांझी को अपने साथ लिया तो एनडीए ने भी कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक चौधरी सहित चार विधान परिषद को अपने पाले में कर लिया. अशोक चौधरी भी दलित समाज से आते हैं और राज्य में शिक्षा मंत्री का पद संभालने के बाद से उनकी पहचान भी ठीक-ठाक हो गई है. इस सह-मात के खेल में एक बात तो साफ हो गया है कि साल 2019 का लोकसभा चुनाव हो या 2020 का विधानसभा चुनाव दोनों में दलित वोटर निर्णायक भूमिका में नजर आ सकते हैं.

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