जनपथ न्यूज डेस्क
Reported by: गौतम सुमन गर्जना/भागलपुर
Edited by: राकेश कुमार
16 जनवरी 2022

बिहार की राजनीति में यदि सबसे ज्यादा हिट विकेट करने वाले राजनेताओं की लिस्ट निकाली जाये,तो उसमें उपेंद्र कुशवाहा पहले पायदान पर खड़े नजर आयेंगे। कुछ तो उनकी किस्मत का खेल रहा और कुछ उनके खुद के निर्णयों का, चारों सदन के सदस्य होने के बावजूद उनकी राजनीतिक उड़ान वाली पतंग की डोर हर बार नीतीश जी के हाथों में पहुंच जाती है। ऐसा लगता है जैसे दोनों फेवीकॉल से जुड़े हों। एक बात तो कहना होगा कि राजनीतिक मौसम को भांप लेने में रामविलास पासवान जी जिस प्रकार पक्के थे, उसी प्रकार उपेंद्र जी इस मामले में कच्चे साबित हुए हैं।

उपेंद्र कुशवाहा की राजनीतिक यात्रा की शुरुआत 1980 के दशक में लोकदल के साथ हुई। संघर्ष के कई पड़ाव को पार करने के बाद वर्ष 2000 के बिहार विधानसभा चुनाव में पहली बार उपेंद्र कुशवाहा चुनावी मैदान में समता पार्टी की टिकट पर उतरे और जन्दाहा से विधायक बने। यह चुनाव मार्च, 2000 में हुआ था और उस समय झारखंड, बिहार से अलग नहीं हुआ था। इस चुनाव में समता पार्टी को कुल 34 सीटें ही मिली थी।
यही वजह रही कि वर्ष 2003 में जनता दल (शरद यादव गुट), लोक शक्ति पार्टी और समता पार्टी के मेल से जनता दल (यूनाइटेड) का उदय हुआ। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में सुशील कुमार मोदी भागलपुर से सांसद बने, जिससे उन्हें बिहार विधानसभा में नेता विरोधी दल की कुर्सी छोड़नी पड़ी। चूंकि, पार्टियों के विलय की वजह से जदयू के विधायकों की संख्या भाजपा से ज्यादा हो गयी थी, ऐसे में बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष जदयू से चुना जाना था।
यही पहला मौका था, जब नीतीश कुमार को उपेंद्र कुशवाहा में संभावनाएं नजर आयीं। उन्होंने उपेंद्र जी को बिहार विधानसभा में नेता विरोधी दल बना दिया। उस समय के हिसाब से उपेंद्र जी को बड़ी जिम्मेदारी दे दी गयी थी। दरअसल, नीतीश कुमार समझ चुके थे कि लालू यादव को हराने के लिए उन्हें कुशवाहों का शत प्रतिशत वोट चाहिए। ऐसे में उपेंद्र जी उनके बेस्ट चॉइस बने और उपेंद्र जी के नेता विरोधी दल रहते ही 2005 का विधानसभा चुनाव हुआ।

फरवरी, 2005 में हुए चुनाव में 92 सीट के साथ एनडीए बड़ा गठबंधन जरूर बनी, लेकिन उस समय किसी गठबंधन के पास सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं था। उपेंद्र कुशवाहा भी जन्दाहा से अपना चुनाव हार गये थे। नवंबर, 2005 में दूसरी बार विधानसभा चुनाव हुए। इस बार समीकरणों के लिहाज जन्दाहा को कठिन सीट मानते हुए उपेंद्र कुशवाहा को समस्तीपुर के दलसिंहसराय सीट से चुनाव लड़ने भेज दिया गया। उपेंद्र कुशवाहा का दुर्भाग्य कहिए, इस बार एनडीए को तो बहुमत मिल गयी, पर वे फिर चुनाव हार गये।
भाजपा के सहयोग से नीतीश कुमार दूसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। एक बार पहले सात दिन के लिए वे मुख्यमंत्री बन चुके थे। 2005 में नीतीश जी नालंदा से सांसद थे। दरअसल, 2004 के लोकसभा चुनाव में नीतीश जी बाढ़ और नालंदा दो जगहों से चुनाव लड़े थे, जिसमें बाढ़ से उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। नीतीश जी के साथ दिल्ली से ही लौट कर आये सुशील कुमार मोदी बिहार के उप मुख्यमंत्री बने। चूंकि, बिहार में विधान परिषद का रास्ता खुला है, तो सीएम और डिप्टी सीएम दोनों उसी रास्ते से चुने गये।

उपेंद्र कुशवाहा को लगा कि उन्हें भी मंत्रिमंडल/विधान परिषद में जगह मिलेगी, क्योंकि भले वे अपना चुनाव हारे हों, उनके नेता विरोधी दल रहते ही जदयू को बड़ी जीत मिली है। लेकिन नीतीश कुमार ऐसे ही माहिर राजनेता थोड़ी हैं। उनकी नजर खुद को और मजबूत करने की तरफ थी। नीतीश जी ने लव-कुश के समीकरण का प्रयोग अपने कमजोर रहते जरूर किया। अब वह बिहार के मुख्यमंत्री बन चुके थे। उन्हें अपने समीकरण में विस्तार देना था। इसके लिए उन्होंने सोशल इंजीनियरिंग का बेहतरीन जाल बुना। हालांकि, अपने ही बुने जाल में आजकल नीतीश जी खुद फंसने लगे हैं।
उपेंद्र जी के पहले हिट विकेट की शुरुआत यहीं से हुई। नीतीश जी से नाराज चल रहे उपेंद्र कुशवाहा ने नीतीश जी के फैसलों पर टिका-टिप्पणी शुरू कर दी। नीतीश जी की मर्जी के खिलाफ उनके दल का कोई आदमी उनके बारे में कुछ बोले, यह नीतीश को कतई बर्दाश्त नहीं होता, ऐसा उनको जानने वाले बताते हैं। उस समय तो वे प्रचंड पावर में थे। उन्होंने पुलिस की मदद से उपेंद्र जी को समान सहित उनके सरकारी आवास से बाहर निकलवा दिया। 2007 में उपेंद्र जी ने राष्ट्रवादी कांग्रेस की घड़ी थाम ली, लेकिन 2009 तक आते-आते उपेंद्र जी को अपनी पहली भूल का एहसास हुआ और उनकी जदयू में ससम्मान वापसी हो गई।

2010 में उपेंद्र जी राज्यसभा भेज दिये गये। राज्यसभा से ज्यादा उपेंद्र जी का मन बिहार पर टिका रहता। दरअसल, उपेंद्र जी बिहार की जमीनी राजनीति से जुड़े रहना चाहते थे, सो उनको राज्यसभा ज्यादा दिन रास नहीं आया और 2012 में उपेंद्र जी ने दूसरी बार हिट विकेट किया। इस बार उन्होंने नीतीश कुमार पर तानाशाह हो जाने का आरोप लगा कर राज्यसभा और जदयू की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया।
उनका यह फैसला उपेंद्र जी के हित में गया। उपेंद्र जी ने 2013 में रालोसपा (राष्ट्रीय लोक समता पार्टी) नाम की नयी पार्टी बनायी। इधर अरुण जेटली जी के इशारे पर मोदी जी की उम्मीदवारी का विरोध करते हुए नीतीश जी ने भाजपा से तलाक लिया, उधर उपेंद्र कुशवाहा की राजनीतिक किस्मत चमकी। 2014 के लोकसभा चुनाव में रालोसपा के तीन सांसद चुने गये, जबकि जदयू के दो। उपेंद्र कुशवाहा पहली बार मंत्री बने। जबकि नीतीश कुमार के साथ उनका साथ लम्बा रहा, पर मंत्री पद उपेंद्र जी से कोसों दूर रही।
2015 के बिहार विधानसभा चुनाव ने दूसरा रंग पकड़ लिया। भाजपा ने लोगों को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार को लेकर भ्रम में रखा। उधर मोहन भागवत का बयान आया और बाजी लालू जी के पिच पर पहुंच गयी। लालू जी ने भाजपा और गोलवलकर के विचारों को पटक पटक कर धोया। महागठबंधन को बड़ी जीत मिली थी।

इसी बीच, 2017 में नीतीश कुमार पलट कर भाजपा के साथ आ गये। उनकी एनडीए में वापसी ने उपेंद्र कुशवाहा को वहां असहज कर दिया। क्योंकि, वे नीतीश जी पर लगातार हमलावर थे। इसी हड़बड़ी में उन्होंने एक और हिट विकेट कर दिया, क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए महागठबंधन से उन्हें चार सीटों का ऑफर था और भाजपा अधिकतम दो सीट दे रही थी। नरेंद्र मोदी को लेकर जनता में जो क्रेज था, उपेंद्र जी उसे समझ ही नहीं पाये और महागठबंधन में आ गये, जबकि उपेंद्र जी के अधिकांश समर्थक भी उनको भाजपा के साथ देखना चाहते थे। नतीजा यह हुआ कि महागठबंधन में ठीक से वोट ट्रांसफर ही नहीं हुआ। 40 में से 39 सीटों पर महागठबंधन की हार हुई। सिर्फ एक किशनगंज से कांग्रेस को जीत मिली।

2020 के विधानसभा चुनाव में राजद ने उपेंद्र कुशवाहा को ज्यादा तरजीह नहीं दिया, क्योंकि उन्हें इनकी महत्वाकांक्षा का इल्म था। महागठबंधन से तिरस्कार के बाद उपेंद्र जी ने जो गठबंधन 2020 में बनाया, उसको छह सीटों (पांच पर एमआईएम और एक बसपा) पर जीत मिली, लेकिन दर्जनों सीटों पर वह जदयू की हार की वजह बना। इसके बावजूद उपेंद्र कुशवाहा के हाथ खाली थे। उधर नीतीश जी भी इस बात को समझ गये कि उपेंद्र यदि उनके खिलाफ डटा रहा तो उनको तीन तरफा हमला झेलना होगा।

उपेंद्र जी तक संदेशे पहुंचने लगे कि नीतीश जी के बाद जदयू को कौन संभालेगा। आप लौट आइये, पुराना घर तो आपका भी है। उपेंद्र जी फिर यहां हिट विकेट हो गये, क्योंकि उनका कैलकुलेशन भाजपा के साथ जदयू गठबंधन में तो फिट बैठ रहा था, लेकिन इसी बीच 2022 में नीतीश कुमार फिर पलट कर महागठबंधन में आ गये।
इस घटना के होते ही उपेंद्र जी एक झटके में जदयू में गेस्ट फैकल्टी बन कर रह गये हैं। उन्हें एहसास हो गया है कि नीतीश जी इतनी आसानी से उन्हें अपना उत्तराधिकार नहीं सौपेंगे। राजद का वोट जदयू को ठीक से ट्रांसफर हो, इसीलिए आजकल नीतीश जी तेजस्वी यादव को अपना उत्तराधिकारी बताने लगे हैं। चर्चाएं जदयू के राजद में विलय तक की होने लगी। यही वजह रही कि उपेंद्र जी बिहार में मंत्री पद की आकांक्षा रखने लगे, ताकि यदि कल राजनीति जैसे भी करवट ले, मंत्री पद मिला तो कम से कम उनके कार्यकर्ताओं में तो ऊर्जा बनी रहेगी। साथ ही यदि उन्हें मंत्री पद नहीं मिलता है, तो उनके लिए धीरे-धीरे जदयू को टाटा बाय-बाय कह पाना भी संभव हो सकेगा।

मेरी समझ कहती है कि उपेंद्र कुशवाहा अब तक कभी भी नीतीश जी के साथ कैबिनेट में शामिल न हो सके हैं, न ही आगे भी कभी हो सकेंगे। नीतीश जी अपने इर्द-गिर्द ऐसे नेता को एकदम नहीं चाहते, जिनका अपना जनाधार थोड़ा भी मजबूत हो, ताकि वे कभी नीतीश जी से बगावत न कर सकें।

दरअसल, बिहार की राजनीति में नेता वही है, जिनके साथ उनकी जाति के अधिकांश लोग खड़े हों। बाकी सब विधायक और सांसद, जो जाति लिस्ट में नंबर बढ़ाने में गिनने के काम आते हैं। इस मामले में उपेंद्र कुशवाहा अब भी बिहार के बाकी के कुशवाहा नेताओं के मुकाबले बीस हैं। नीतीश जी के करीब रहने वाले अशोक चौधरी जी पासी समाज से जरूर आते हैं, लेकिन शायद ही पासी समाज उन्हें अपना नेता मानता हो, विजय चौधरी भूमिहार समाज से तो आते हैं, लेकिन भूमिहार उन्हें अपना नेता कम विधायक/मंत्री ज्यादा मानता है। यही बात संजय झा के भी केस में है। ये तीनों नेता नीतीश जी के साथ हर पल साये की तरह रहते हैं।

अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इस बार उपेंद्र कुशवाहा की राजनीति का क्या होता है। क्योंकि,भाजपा ने जिस तरह से आरसीपी सिंह और चिराग पासवान को लटका रखा है, उस स्थिति में यही कहा जा सकता है कि शायद अब भी उनको नीतीश कुमार का इंतज़ार हो। ऐसे में उपेंद्र जी और नीतीश जी दोनों भाई में सुलह होता है या झगड़ा, उसके लिए अगले खरमास तक बने रहें।

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