जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 31 दिसम्बर :: डिग्रीधारियों से तो अच्छे है अनपढ़ होना। यह कहावत अब गलत साबित नही होगी कि ” पढ़म- लिखम ता का होई, भैस चराम त मठ्ठो खाइम” याद होगा कि देहात में बूढ़े बुजुर्ग कहा करते थे कि “पढ़ोगे- लिखोगे बनोगे नवाव, खेलोगे-कूदोगे बनोगे खराब”।

जरा सोंचिये, एनआरसी जो लागू हीं नहीं हुआ और उसका विरोध करने के लिए सड़कों पर शाहीनबाग बनाकर ऐसे लोग बैठ गए जिनको कानून की जानकारी नहीं थी। उसी प्रकार किसान आंदोलन में सड़क जाम करने वाले लोग जो पूरा किसान बिल को भी पढ़ा नही और उसके विरोध कर रहे हैं। इससे तो यही सावित होता है की पढ़े लिखे लोगों से अच्छा अनपढ़/कम पढ़े लोग हैं, जो बिना पढ़े ही एनआरसी और नए किसान कानून को समझ जाते हैं और एनआरसी लागू नही करने तथा नये किसान कानून को वापस लेने की मांग कर रहे हैं।

किसान बिल को कई कई बार पढ़ा गया होगा, किसानों की बात सुनी जा रही है, विपक्षियों की बात सुनी जा रही है, टीवी पर बहस सुनी जा रही है। लेकिन अभी तक यह समझ में नहीं आ रहा है कि नए किसान कानून मे ऐसा क्या है जिसे खासतौर से किसान विरोधी कहा जा रहा है। अब तो लगता है कि हमलोगों की ऐसी पढ़ाई पर लानत होनी चाहिए और ऐसी शिक्षा प्रणाली पर जो हमलोगों को इस लायक नहीं बना पाई की इस बिल मे किसान विरोधी तत्वों की पहचान कर सकूँ।

हमलोग एक आम हिन्दुस्तानी हैं। टीवी की चीख पुकार के आधार पर किसी मुद्दे पर अपनी राय बना लेते हैं टीवी पर माइक हाथ मे थामे हाँफ हाँफ कर चिल्लाती हुई सुंदरी और उससे टक्कर लेता हुआ दूसरे चैनल का थका हारा रिपोर्टर मेरे ज्ञान के स्रोत बन जाते हैं। मेरा सारा ज्ञान उनकी आवाज की स्पीच पर निर्भर करता है। जो रिपोर्टर जोरदार आवाज मे अपनी बात कहता है हमलोग उसकी बात को सही मान लेते है।

किसानों और सत्ता के बीच जो बातें हो रहीं है उससे भी कोई राय बनाना संभव नहीं हो सकता है। किसान नेता वार्ता करने जाते हैं। सत्ता पक्ष से वार्ता होती है। किसान नेताओं ने शुरू मे ही कह दिया की बिल वापस लो। इससे कम पर कोई वार्ता नहीं होगी। सत्ता पक्ष ने कहा की बिल वापस नहीं होगा। इसके अलावा और कोई बात हो तो बताओ। हमारे दरवाजे वार्ता के लिए हमेशा खुले हैं। दोनों पक्ष खुले दरवाजे मे वार्ता के लिए इकट्ठे हो रहे हैं। वार्ता हो रही है। वार्ता ह और न पर चलती है और खत्म हो जाती है। अगली वार्ता फिर होगी।

लोकतन्त्र की यही खासियत है कि वार्ताएं होती हैं। हालांकि वार्ता का नतीजा अक्सर पहले से तय होता है।

यह स्वीकार किया जा सकता है कि भारत के किसानों को कम करके आंकना या उन्हे अंडर एस्टीमेट करना उचित नहीं था।

हमलोग ऐसे किसान को जानते थे जिनके पास दो जून की रोटी का जुगाड़ भी नहीं होता है। किसी तरह चना चबेना से पेट की आग बुझा लेता है। लेकिन आंदोलन में शामिल किसान के बारे में जब पता चला कि वह छः महीने का राशन साथ लेकर आया है, तो आँखे खुली की खुली रह गई। अभी पिछली खबर तक तो किसान कर्ज से डूबा हुआ था। कर्जा अदा न कर पाने के कारण फांसी लगा रहा था। मुझे तो लगता है कि भारत का स्वाभिमानी किसान अब कोई सब्सिडी स्वीकार नहीं करेगा। वैसे भी एसयूवी मे चलना और दया की बिना पर सब्सिडी लेना एक साथ शोभा भी नहीं देता है। जबकि सच्चाई तो यही है कि आज भी भारत मे किसान आंदोलन जैसी बातों से अंजान गेहूं की बुवाई कर रहे है। बच्चे की फीस भरने के लिए सरकारी सहायता की किश्त का इंतजार कर रहे है।

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