45 विधायकों के नेता हैं नीतीश, महागठबंधन की उल्टी गिनती शुरू
जनपथ न्यूज डेस्क
Reported by: गौतम सुमन गर्जना/भागलपुर
Edited by: राकेश कुमार
15 मार्च 2023
पटना/भागलपुर: लालू प्रसाद यादव, उनके परिवारवालों और करीबियों के खिलाफ सीबीआई की कार्रवाई पर पहले नीतीश कुमार की चुप्पी रही। बाद में बोले भी तो साफ-साफ इसकी आलोचना के बजाय गोल-गोल घुमाकर। इसके मायने समझने-बताने में हम जैसे राजनीतिक विश्लेषकों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। हालांकि अधिकतर इस कयास से इत्तफेफाक रखते हैं कि नीतीश कुमार अपने पुराने अंदाज में फिर पाला बदल सकते हैं। नीतीश अपने 18 साल के मुख्यमंत्रित्व काल में दो बार बीजेपी तो इतनी ही बार आरजेडी के साथ रिश्ते बनाते-बिगाड़ते रहे हैं। अभी वे आरजेडी के नेतृत्व वाले महागठबंधन के साथ हैं। बीजेपी के छोटे-बड़े तमाम नेता कई बार कह चुके हैं कि उनके लिए बीजेपी के दरवाजे बंद हो चुके हैं। फिर भी कुछ ऐसे संकेत मिल रहे हैं,जिससे नीतीश को लोग शंका की नजरों से देखने लगे हैं।
*लग रहे हैं कई तरह के कयास ..?*
मेरा मानना है कि नीतीश ने अपनी पलटू राम वाली छवि से मुक्ति पाने का निश्चय कर लिया है। यानी अभी वे जहां हैं, वहां से फिलहाल हटने वाले नहीं हैं। ऐसा इसलिए कि नीतीश कुमार अब तक सिर्फ अपनी जाति के नेता नहीं बन पाये। हालांकि उनकी राजनीति जातीय सम्मेलन से ही परवान चढ़ी थी। नीतीश कुर्मी जाति से आते हैं। 1994 में कुर्मी सम्मेलन में ही नीतीश की राजनीति को हवा मिली थी। उसी सम्मेलन से कुशवाहा-कुर्मी का लव-कुश समीकरण बना था, जिनकी समेकित आबादी बिहार में 10-11 प्रतिशत मानी जाती है। जाहिर है कि इतनी आबादी के भरोसे वे सीएम नहीं बन पाते। इसलिए उन्होंने सबको साथ लेकर चलने की रणनीति बनायी। विधानसभा चुनावों में भी उन्हें 15-20 प्रतिशत के करीब वोट मिलते रहे हैं। इसका अर्थ यही हुआ कि अकेले अपने दम पर वे सीएम तो कभी बनते ही नहीं। लंबे वक्त तक उनके साथ बीजेपी रही। बीजेपी से सीट शेयरिंग कर वे चुनाव लड़ते रहे। यानी नीतीश को बीजेपी के वोट भी ट्रांसफर होते रहे हैं।
*आरजेडी में दिख रहा है दम!*
नीतीश कुमार को बीजेपी के मुकाबले आरजेडी अधिक दमदार दिखाई पड़ रही है। 2015 के विधानसभा चुनाव नीतीश आरजेडी के साथ लड़ चुके हैं। तब दोनों को अलग-अलग लगभग 16-17 प्रतिशत वोट आए थे। कांग्रेस भी उस वक्त साथ थी। उसे भी 6-7 प्रतिशत वोट मिले थे। तीनों में कांग्रेस को छोड़ भी दें तो सिर्फ आरजेडी और जेडीयू के सम्मिलित वोट 32-33 फीसदी होते हैं। नीतीश की लोकप्रियता लंबे समय तक सीएम रहने के कारण घटी भी है। इसलिए आरजेडी के सहारे जेडीयू आसानी से बैतरणी पार कर सकता है।
*क्या नीतीश सीएम पद छोड़ेंगे?*
नीतीश कुमार ने सम्मानपूर्वक अपना मौजूदा कार्यकाल पूरा करने का बंदोबस्त कर लिया है। उन्होंने पहले ही घोषणा कर दी है कि 2025 का विधानसभा चुनाव आरजेडी के नेता और बिहार के डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबंधन लड़ेगा। उन्होंने यह बात सार्वजनिक कर अपनी कुर्सी तो मौजूदा कार्यकाल तक के सुरक्षित कर ली है, लेकिन आरजेडी के नेता-कार्यकर्ता बीच-बीच में आवाज बुलंद करते रहते हैं कि कुछ ही दिनों में बिहार की सत्ता तेजस्वी यादव संभालने वाले हैं। मगर नीतीश के मन में क्या चल रहा है, यह किसी को नहीं मालूम। वैसे भी कुर्सी मोह में ही वे बाला बदलते रहे हैं। इसलिए यह कहना कि नीतीश इतनी आसानी से कुर्सी छोड़ देंगे, हजम नहीं होता है।
*नीतीश के सामने विकल्प*
सीएम पद से नीतीश को हटाने का आरजेडी की ओर से दबाव बनता है, तब भी वे कुर्सी नहीं छोड़ेंगे। नीतीश के सामने कुर्सी छोड़ने की मजबूरी तभी होगी, जब जेडीयू टूट जाये और उसके कुछ विधायक आरजेडी में शामिल हो जाएं। जेडीयू के 43 विधायकों में दल बदल कानून से बचने के लिए टूटने वाले विधायकों को पहले एकजुट होना पड़ेगा, जो आसान नहीं दिखता। नीतीश कुमार लालू परिवार के खिलाफ चल रही सीबीआई-ईडी की कार्रवाई के फलाफल का इंतजार करेंगे। लालू के परिवार में तीन को छोड़, बाकी बेटे-बेटियां अभी जांच एजेंसियों का सामना कर रहे हैं। जिस तरह दिल्ली की केजरीवाल सरकार के दो बड़े मंत्री मनीष सिसोदिया और सत्येंद्र जैन की गिरफ्तारी सीबीआई और ईडी ने की है, उसे देखते हुए इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि तेजस्वी या सियासी विरासत संभालने वाले लोगों की गिरफ्तारी न हो। अगर ऐसा होता है तो बिल्ली के भाग से छींका टूटने वाली कहावत चरितार्थ हो जाएगी।
*नीतीश को लालू संकट से फायदा!*
नीतीश कुमार को ये मालूम है कि हाल के दिनों राजद नेता अपनी पार्टी के संख्या बल को लेकर कुछ ज्यादा ही बोल रहे थे। अब चूंकि उनके नेता सीबीआई और ईडी की रडार पर हैं,उनपर कार्रवाई जारी है। वैसे में ये ज्यादा उछल-कूद नहीं मचा पाएंगे। क्योंकि उनके पास अभी सीएम पद के लिए कोई पाक-साफ चेहरा नहीं है। ऐसी हालात में नीतीश बेखटके राज करते रहेंगे। लालू परिवार के पास भी इसके अलावा कोई चारा नहीं बचेगा। इसलिए कि अभी उनके परिवार के सबसे भरोसेमंद साथी नीतीश कुमार ही हैं। तीसरी संभावना पर विचार करते समय यह बात गांठ बांध लेनी होगी कि राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता। भले ही बीजेपी यह कह रही हो कि नीतीश के लिए उसके दरवाजे बंद हो चुके हैं, लेकिन किसी भी अनबन की स्थिति में बीजेपी भीतर-बाहर कहीं से भी समर्थन देकर नीतीश को बचा लेगी। बीजेपी भी जानती है कि सात दलों के महागठबंधन से बिहार में लोकसभा चुनाव के दौरान उसका पार पाना संभव नहीं है। वह आजमाये साथी को अपनाने से कत्तई परहेज नहीं करेगी। बहरहाल, देखना यह है कि सीबीआई-ईडी जैसी एजेंसियों की लालू परिवार के खिलाफ सक्रियता का परिणाम क्या होता है।