जनपथ न्यूज डेस्क
Reported by: गौतम सुमन गर्जना/भागलपुर
Edited by: राकेश कुमार
4 जनवरी 2022
लोकसभा के लगातार दो चुनावों में अपना परचम लहराने वाले नरेंद्र मोदी को मात देने के लिए विपक्ष लगातार कोशिश करता रहा है। वर्ष 2019 में कोलकाता में विपक्ष का महाजुटान हुआ था, तो भाजपा को 2014 के मुकाबले 2019 में अधिक सीटें आयीं थी। एक बार फिर विपक्ष की गोलबंदी की कवायद चल रही है। इस बार विपक्ष कितना कामयाब हो पायेगा,यह तो उसके प्रयास पर निर्भर करता है। लेकिन अभी तक जो स्थिति दिख रही है, उससे इतना तो संकेत मिल ही जाता है कि मोदी को मात देना विपक्ष के बूते की बात नहीं है। पीएम मोदी को मात देने के लिए विपक्ष बेचैन तो है, पर उसमें एकजुटता नहीं बन पा रही है। राहुल गांधी की भारत यात्रा के बहाने कांग्रेस विपक्ष को एकजुट करना चाहती थी, लेकिन राहुल के निमंत्रण पर मायवती और अखिलेश यादव ने सिर्फ शुभकामनाएं देकर पिंड छुड़ा लिया है। ममता बनर्जी का रुख तो पहले से ही स्पष्ट है.बिहार में भी इसी तरह की संभावना है।
विपक्षी एकजुटता की बात सतही: विपक्ष एकजुटता की बात तो करता है,लेकिन अभी तक उसके प्रयास सतही रहे हैं। असेंबली इलेक्शन में हैट्रिक लगाने वाली बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने इसके लिए आरंभिक प्रयास किये। उन्होंने दिल्ली की दौड़ लगाई और क्षेत्रीय दलों के नेताओं से भी वह मिलीं.उनकी कोशिशों से यही लगा कि पीएम पद के लिए महत्वाकांक्षा उनके मन में पल रही है। विपक्षी एकता की उनकी कोशिश में एक बड़ी कमी यह दिखी कि उन्होंने कांग्रेस और गांधी परिवार को कोई तरजीह नहीं दी। उन्हीं के अंदाज में कांग्रेस ने भी उन्हें कोई तवज्जो नहीं दी। दरअसल, ममता बनर्जी ने कांग्रेस से निकल कर ही तृणमूल कांग्रेस बनायी और बंगाल से कांग्रेस की विदाई ही हो गयी। बंगाल के बचे-खुचे कांग्रेसी नेताओं को ममता फूटी आंख नहीं सुहाती हैं। ममता राहुल गांधी को पीएम फेस बनाने के लिए कतई तैयार नहीं हैं।
ममता की कोशिशों पर भी पानी: जिन नेताओं से ममता की नजदीकी बढ़ी थी,उनमें शरद पवार और उद्धव ठाकरे थे। शरद पवार ने खुद को पीएम की रेस से पहले ही बाहर कर लिया था। अलबत्ता उन्होंने ममता के इरादों पर यह कह कर पानी फेर दिया था कि कांग्रेस रहित विपक्षी गंठजोड़ का कोई मायने नहीं। हार-थक कर ममता शांत हो गयीं और बंगाल की अपनी जमीन पुख्ता करने के प्रयासों में लगे रहने में उन्होंने भलाई समझी। अब तो वह मोदी की इतनी मुरीद हो चुकी हैं कि उनके कार्यक्रम में शरीक होने से नाक-भौं नहीं सिकोड़तीं, बल्कि उत्साह से मीडिया को यह जानकारी देती हैं कि उन्हें पीएम के कार्यक्रम में शामिल होना है। पीएम के प्रति उनके मन के भाव कितने बदल गये हैं,यह उनकी एक सलाह से जाहिर हो जाता है। जिस दिन मोदी को कोलकाता में 7800 करोड़ की योजनाओं की सौगात बंगाल को देने के लिए जाना था, उसकी भव्य तैयारी ममता सरकार ने की थी। दुर्योग से उसी दिन पीएम की मां का निधन हो गया। इसके बावजूद पीएम ने कार्यक्रम में वर्चुअल शिरकत की.उसी दौरान ममता ने उन्हें सलाह दी कि अब आप थोड़े दिन आराम करें। कार्यक्रम में जय श्री राम के नारे गूंजने से खफा ममता मंच पर नहीं गयीं, पर मोदी के प्रति सद्भाव का परिचय उन्होंने अपनी सलाह से दिया।
केसीआर भी नहीं भर पाए विपक्षी एकता के गुब्बारे में हवा: ममता के बाद तेलांगना के सीएम केसी राव सक्रिय हुए। देश में उनके दौरे बढ़ गये और वह बिहार भी आये। बिहार के सीएम नीतीश कुमार से उन्होंने मुलाकात की। नीतीश ने अपने पत्ते नहीं खोले. हां, उन्होंने विपक्षी एकता की कवायद में शामिल होने के अभियान में शामिल होने की हामी जरूर भरी। जैसा अक्सर होता आया है, अपने नेता नीतीश कुमार को जदयू ने पीएम मटेरियल बताना शुरू कर दिया। राजद तो इसी उम्मीद में नीतीश के साथ आया है कि उसके नेता फिलवक्त बिहार के डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव को सीएम की कुर्सी मिल जाएगी। राजद ने भी नीतीश को पीएम मटेरियल बता कर उन्हें विपक्षी एका के प्रयास के लिए देश के दौरे पर निकलने की सलाह दे डाली। इस बीच कांग्रेस के सीनियर लीडर कमल नाथ ने यह कह कर नीतीश के नये साल में शुरू होने वाले विपक्षी एकता के प्रयास की हवा निकाल दी कि 2024 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी ही पार्टी और पीएम के फेस होंगे। नीतीश कुमार अब देश का दौरा छोड़ बिहार का दौरा कर रहे हैं। आधिकारिक तौर पर मिली जानकारी के अनुसार वह 5 जनवरी से अपनी बिहार यात्रा शुरू करेंगे।
राहुल गांधी भी विपक्ष को एक छत के नीचे लाने में नाकाम: कांग्रेस की बात करें तो राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होने के निमंत्रण पर यूपी में समाजवादी पार्टी (एसपी) नेता अखिलेश यादव और बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) मायावती ने चुप्पी साध ली है। बंगाल में ममता पहले से ही चुप हैं। बिहार से भी राजद और जदयू से उम्मीद अब बेईमानी है। यानि अभी तक की जो स्थितियां हैं, उसमें विपक्षी एका के प्रयास सार्थक होते नजर नहीं आ रहे हैं। कांग्रेस अपनी राह चल रही है। ओडिशा से भी कोई स्पष्ट संकेत अभी तक विपक्षी एका की पहल के नहीं मिले हैं।
विपक्ष के पास मोदी के विरोध का हथियार महज एंटी इन्कम्बैंसी वोट:
विपक्ष के पास मोदी के विरोध का हथियार महज एंटी इन्कम्बैंसी वोट है। लेकिन चुनावों में यह अब कितना कारगर टूल साबित होगा, इस पर संदेह है। इसलिए कि गुजरात में एंटी इन्कम्बैंसी के भरोसे ही आम आदमी पार्टी (आप) और कांग्रेस उछल रही थीं। भाजपा की रणनीति ने उसकी हवा निकाल दी। इससे यह भी संकेत मिला है कि चुनाव में अब एंटी इन्कम्बैंसी कोई फैक्टर नहीं है। चुनाव के ठीक पहले मोरबी हादसे से उपजे आक्रोश को भी भाजपा ने वोटों में तब्दील कर दिया। आगामी लोकसभा चुनाव में भी विपक्ष के पास एंटी इन्कम्बैंसी ही एकमात्र बड़ा हथियार है, जबकि भाजपा की ताकत उसकी सुविचारित चुनावी रणनीति और कुशल प्रबंधन है। विपक्ष अभी तक जहां एकजुटता के प्रयासों में उलझा हुआ है,वहीं भाजपा अपनी रणनीतियों पर अमल करने में लगी हुई है।
भाजपा नेताओं के दौरे शुरू हो चेके हैं। भाजपा पिछले चुनाव में हारी हुई सीटों को जीतने की जुगत में है। नेताओं में जिम्मेवारियां बांट दी गई हैं। भाजपा ने गुजरात चुनाव के लिए एक नायाब नुस्खा अपनाया हुआ है। उसने चुनाव से पहले कई मंत्री बदले और बड़े पैमाने पर उनके टिकट भी काटे। इसके साथ ही उन्होंने वहां पर नये लोगों को अवसर दिया है। इसका उसे फायदा हुआ। लोकसभा चुनाव में वह इस नुस्खे को अपनाने वाली है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेर-बदल होने वाला है। यानि विपक्ष जब तक समझे, तब तक भाजपा की अपनी चालें चल चुकी होगी। इसीलिए यह माना जा रहा है कि मोदी को मात देने में विपक्ष की कामयाबी 2024 में भी संदिग्ध है।