जनपथ न्यूज डेस्क

Reported by: गौतम सुमन गर्जना
Edited by: राकेश कुमार
11 अक्टूबर 2022

भागलपुर : नेताजी के नाम से खास चर्चित मुलायम सिंह यादव पहलवान थे,लिहाजा दांव-पेंच भी खूब जानते थे.राजनीति के अखाड़े में भी वे माहिर खिलाड़ी माने जाते रहे.सन् 1989 में बोफोर्स विरोध के दम पर मांडा के राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह ने गैर कांग्रेसी सरकार बनाई तो मुलायम सिंह यादव जैसे क्षत्रपों का रसूख भी बढ़ा। लोकसभा चुनाव के ठीक बाद जब उत्तर प्रदेश में चुनाव हुए तो जनता दल जीत गई। वीपी सिंह ने अजित सिंह को सीएम और मुलायम सिहं यादव को डिप्टी सीएम घोषित कर दिया लेकिन,पहलवान अड़ गया.मुलायम ने सियासी दांव खेलते हुए अजित सिंह के पाले के विधायक तोड़ लिए और विधायक दल के नेता बन बैठे.वीपी सिंह को मुलायम में अपना विरोधी दिखता था। उधर पड़ोसी बिहार में लालू प्रसाद यादव का उदय हो रहा था। लालू और मुलायम तो आज समधी हैं लेकिन दोनों ने तब एक दूसरे को भी निशाने पर लिया था और दोनों वीपी सिंह के निशाने पर कभी न कभी रहे। कहा जाता है कि लालू प्रसाद यादव के सख्त ऐतराज के कारण ही मुलायम सिंह यादव पीएम बनते -बनते रह गए। लालू और मुलायम देवीलाल के ज्यादा करीबी माने जाते थे। इसलिए भारतीय राजनीतिक इतिहास का जब निर्णायक मोड़ आया तो वीपी सिंह ने मुलायम को सेहरा नहीं लेने दिया। शह-मात के इस खेल में राजा ने लालू को एक ऐसा काम सौंप दिया, जिसके बूते वो आज भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के विरोध का सबसे विश्वसनीय प्रतीक माने जाते हैं। आईये अब पूरा किस्सा जानते हैं…
जब वी.पी. सिंह और देवीलाल की अदावत अगस्त 1990 में खुलकर सामने आ गई तो लालू प्रसाद यादव का स्वाभाविक विकल्प देवीलाल और चंद्रशेखर का साथ देने का होना चाहिए था। आखिर उन दोनों व्यक्तियों ने कुछ ही महीने पहले बिहार का मुख्यमंत्री बनने में उनकी मदद की थी। वीपी सिंह के भरोसे रहकर तो लालू प्रसाद यादव का कुछ होना नहीं था। लेकिन लालू प्रसाद यादव ने राजनीति के कुछ पाठ बहुत पहले कंठस्थ कर लिये थे। उनमें से एक था कि दोस्ती और दुश्मनी कभी हमेशा के लिए नहीं होतीं और दूसरा यह कि राजनीति में स्वार्थ सर्वोपरि होता है। उन्होंने वीपी सिंह का साथ दिया।

लालू प्रसाद यादव ने मंडल के जादुई पिटारे को खोला ही था कि एक और उपहार मांडा के राजा ने उन्हें थमा दिया। 1989 के चुनाव में दो से 85 सीटों पर पहुंची भाजपा के नेता और हिंदू हृदय सम्राट लालकृष्ण आडवाणी ने ऐतिहासिक रथ यात्रा का ऐलान किया। सितंबर 1990 में गुजरात के सोमनाथ से इसकी शुरुआत हुई.यात्रा के अंतिम चरण में आडवाणी अपने रथ के साथ बिहार पहुंचने वाले थे। उधर वीपी सिंह की सरकार भाजपा के समर्थन पर ही टिकी थी, लेकिन ये यात्रा जनता दल के उसूलों के खिलाफ थी। इसलिए वीपी सिंह सरकार पर कई तरह के सवला उठने लगे थे।

मुलायम ने हिसाब चुकता किया : जनता दल के नेताओं ने आडवाणी पर सांप्रदायिक कार्ड खेल देश का माहौल खराब करने का आरोप लगाया.जब रथ बिहार पहुंचा, तब सरकार को डर लगने लगा। आडवाणी रामजन्मभूमि अयोध्या के करीब पहुंच चुके थे और पूरे उत्तर प्रदेश में तनाव का माहौल कायम था। राज्य में उनका प्रवेश आग लगा सकता था.उन्हें रोकना आवश्यक था; लेकिन कहाँ और कैसे..यह एक बड़ा सवाल था? मालूम हो कि उन्हें यहां तक आने की अनुमति देने के बाद राम रथ को रोकने की तार्किक जगह उत्तर प्रदेश ही होनी चाहिए थी-शांति और व्यवस्था के नाम पर लेकिन, प्रधानमंत्री वीपी सिंह की एक समस्या थी। वे नहीं चाहते थे कि मुलायम सिंह यादव मुसलमानों के बीच ज्यादा लोकप्रिय हो जाएं। दरअसल, यूपी ही वीपी सिंह की कर्मभूमि थी और वो अपने लिए सियासी जमीन बचाए रखना चाहते थे।

वीपी सिंह धर्मनिरपेक्षता का ताज मुलायम सिंह यादव कतई नहीं देना चाहते थे इसलिए उन्होंने लालू प्रसाद यादव को आडवाणी का रथ रोकने के लिए कहा। वहीं, लालू प्रसाद यादव जिसे सीएम बनाने के खिलाफ थे, वीपी सिंह। लालू ने ये गिफ्ट तहे दिल से कबूल कर लिया। जब वीपी सिंह ने ऑर्डर दिए तब आडवाणी हजारीबाग से होते हुए गया के रास्ते समस्तीपुर जिले में प्रवेश कर गए थे। उन्होंने गांधी मैदान से भी आडवाणी को खबरदार किया था। वे कई दिनों से अपनी लाइनें तैयार कर रहे थे- अगर कोई इस देश में हिम्मत किया है, इस तोड़-फोड़वाले रथ को रोकने के लिए तो वह है लालू प्रसाद यादव। लालू यादव जान पर खेल जाएगा, लेकिन फिर से इस देश का बँटवारा हिंदू-मुसलमान में नहीं होने देगा। लालू ने अरेस्ट करने की जिम्मेदारी डीआईजी रामेश्वर उरांव और आईएएस राजकुमार सिंह को सौंपी। 22 अक्टूबर, 1990 की रात आडवाणी के रथ का पहिया समस्तीपुर में ही थम गया। अगली सुबह लालू की नींद रामेश्वर उरांव के फोन से टूटी – सर, हमने उन्हें अरेस्ट कर लिया है।

लालू प्रसाद यादव ने हेलिकॉप्टर के जरिए आडवाणी को मंसजौर स्थित बिहार सरकार के गेस्ट हाउस में भेज दिया और फिर उन्होंने वीपी सिंह को इस बात की जानकारी दी। तब तक लालू प्रसाद यादव धर्मनिरपेक्षता के मसीहा के तौर पर छा चुके थे और तब राजा वीपी सिंह मंद-मंद महज इसलिये मुस्कुरा रहे थे कि वे मुलायम सिंह यादव को आडवाणी की गिरफ्तारी का श्रेय लेने से रोक चुके थे, लेकिन इसके साथ ही वीपी सिंह के दिन भी गर्दिश में जाने लगे। आडवाणी के अरेस्ट होने के ठीक 13 दिनों बाद 5 नवंबर, 1990 के दिन चंद्रशेखर सिंह ने जनता दल को तोड़ दिया और समाजवादी जनता पार्टी बना ली। मौका देख मुलायम सिंह यादव और देवीलाल भी चंद्रशेखर के साथ हो लिए और फिर 7 नवंबर के दिन वीपी सिंह के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव भारी बहुमत से पास हो गया। मांडा के राजा जमीन पर आ गिरे और चंद्रशेखर सिंह कांग्रेस के समर्थन से देश के नए प्रधानमंत्री बन गए। मुलायम की सरकार भी कांग्रेस के सपोर्ट से चलती रही। दो साल बाद मुलायम ने अपनी समाजवादी पार्टी बनाई कांशीराम के सहयोग से 1993 में दूसरी बार वे सीएम बने। लालू प्रसाद यादव ने राजा के उपहार का मान रखा या यूं कहिए कि बिहार के राजपूत वोट बैंक की खातिर वीपी सिंह के साथ खड़े रहे।

मुलायम का पॉलिटिकल करियर : मुलायम सिंह यादव भारत और हिन्दी बेल्ट की राजनीति में पांच दशकों से ज्यादा समय तक सक्रिय रहे। 55 सालों के राजनीतिक कैरियर में मुलायम सिंह यादव भारत के प्रधानमंत्री बनते बनते रह गए। वे देश के रक्षा मंत्री बने, 7 बार सांसद रहे और 8 बार विधानसभा में विधायक रहे और एक बार वे एमएलसी भी बने थे।

मुलायम सिंह की 55 सालों की राजनीतिक यात्रा उतार-चढ़ाव से भरी रही है। यह एक गांव से एक साधारण व्यक्ति के निकलकर लोकतांत्रिक व्यवस्था में शीर्ष तक पहुंचने की रोमांचक कहानी है। जहां उन्होंने अपने नेतृत्व कौशल और राजनीतिक प्रबंधन के दम पर इंदिरा-राजीव और अटल-आडवाणी के दौर में अपनी पहचान बनाई। भले ही 10 अक्टूबर दिन रविवार को उन्होंने दुनियां को अलविदा कहकर चले गए, लेकिन वे खुद को अमर कर गए। हम अपने https://janpathnews.com/ की ओर से उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

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